उत्तराखंड हाईकोर्ट की नैनीताल बेंच में एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान एक ऐसा मामला सामने आया, जिसने भाषा और कार्यक्षमता को लेकर गंभीर सवाल खड़े कर दिए। यह याचिका आकाश बोरा ने दायर की थी, जिसमें बुदलाकोट गांव की मतदाता सूची में 82 बाहरी लोगों के नाम शामिल करने का आरोप था। इस मामले में अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट (एडीएम) विवेक राय से सवाल-जवाब के दौरान उन्होंने हिंदी में जवाब दिया। इस पर मुख्य न्यायाधीश गोहनाथन नरेंद्र और जस्टिस आलोक मेहरा की खंडपीठ ने सवाल उठाया कि क्या एक एडीएम स्तर का अधिकारी, जिसे अंग्रेजी बोलने में दिक्कत हो, वह अपने पद के लिए सक्षम है? इस टिप्पणी ने न केवल विवाद को जन्म दिया, बल्कि यह सवाल भी उठाया कि क्या अंग्रेजी न बोल पाना किसी की कार्यक्षमता पर सवाल उठाने का आधार हो सकता है।
मामला क्या था?
आकाश बोरा की याचिका में दावा किया गया था कि बुदलाकोट की मतदाता सूची में बाहरी लोगों, जिनमें ओसा और अन्य क्षेत्रों के लोग शामिल थे, के नाम गलत तरीके से जोड़े गए। इसकी शिकायत स्थानीय उप-जिला मजिस्ट्रेट (एसडीएम) से की गई थी, जिन्होंने जांच कमेटी बनाई। जांच में 18 नाम गलत पाए गए, लेकिन उन्हें हटाया नहीं गया। इस मुद्दे पर सुनवाई के दौरान जब विवेक राय ने हिंदी में जवाब दिया, तो जजों ने उनकी अंग्रेजी बोलने की क्षमता पर सवाल उठाए। राय ने विनम्रता से कहा कि वह अंग्रेजी समझते हैं, लेकिन बोलने में उतनी सहजता नहीं है। इसके जवाब में कोर्ट ने उनकी कार्यक्षमता पर सवाल उठाते हुए उत्तराखंड के मुख्य सचिव को जांच का आदेश दिया कि क्या ऐसे अधिकारी अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में सक्षम हैं।
सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप
इस आदेश के खिलाफ मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, जहां मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई, जस्टिस के. विनोद चंद्रन और जस्टिस एन.वी. अंजारिया की खंडपीठ ने हाईकोर्ट के आदेश पर अंतरिम रोक लगा दी। सुप्रीम कोर्ट ने चार सप्ताह में विस्तृत रिपोर्ट मांगी है। इस बीच, मूल याचिका का मुद्दा (मतदाता सूची में गड़बड़ी) पीछे छूट गया, और बहस का केंद्र बन गया कि क्या अंग्रेजी न बोल पाना कार्यक्षमता की कमी का सबूत है।
अंग्रेजी और कार्यक्षमता का मिथक
जजों का यह सवाल कि क्या अंग्रेजी न बोल पाने वाला अधिकारी सक्षम हो सकता है, एक गहरे सांस्कृतिक और ऐतिहासिक मुद्दे को उजागर करता है। भारत में अंग्रेजी को अक्सर बुद्धिमत्ता और कार्यक्षमता का पैमाना माना जाता रहा है, जो ब्रिटिश औपनिवेशिक शिक्षा प्रणाली और मैकाले की नीतियों की देन है। इस मानसिकता ने देश में प्रतिभाओं को दबाया और स्थानीय भाषाओं को दोयम दर्जा दिया। अगर अंग्रेजी बोलना ही कार्यक्षमता का मापदंड है, तो क्या ब्रिटेन और अमेरिका के सामान्य कर्मचारी, जो अंग्रेजी बोलते हैं, भारत के अधिकारियों से अधिक सक्षम हैं? यह तर्क न केवल गलत है, बल्कि भारत की सांस्कृतिक और भाषाई विविधता को नजरअंदाज करता है।
विवेक राय ने स्पष्ट किया कि वह अंग्रेजी समझते हैं, लेकिन बोलने में सहज नहीं हैं। क्या इससे उनकी प्रशासनिक क्षमता कम हो जाती है? भारत में प्रशासनिक अधिकारियों को स्थानीय भाषाएं, जैसे तमिल, उड़िया, गुजराती, या मराठी, सीखने की सलाह दी जाती है ताकि वे स्थानीय लोगों से बेहतर संवाद कर सकें। उत्तराखंड में स्थानीय पहाड़ी बोली जानना ज्यादा महत्वपूर्ण है, न कि अंग्रेजी में धाराप्रवाह बोलना।
भाषा और सांस्कृतिक गुलामी
यह मामला भारत में भाषाई गुलामी की गहरी जड़ों को उजागर करता है। स्वतंत्रता के 77 साल बाद भी हम अंग्रेजी को ज्ञान और सक्षमता का पर्याय मानते हैं। स्वर्गीय वेद प्रताप वैदिक जैसे विद्वानों ने हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में प्रतियोगी परीक्षाओं की मांग की थी, ताकि स्थानीय प्रतिभाओं को मौका मिले। लेकिन आज भी यूपीएससी और अन्य परीक्षाओं में अंग्रेजी को अनावश्यक महत्व दिया जाता है। भारत, जो संस्कृत और हिंदी जैसी समृद्ध भाषाओं का देश है, अपनी सांस्कृतिक जड़ों से कट रहा है।
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने कहा था, “निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल। बिन निज भाषा-ज्ञान के, रहत नये को शूल।” यह शूल आज भी हमें चुभ रहा है। अगर अंग्रेजी न बोल पाना अक्षमता का प्रमाण है, तो क्या हिंदी, तमिल, तेलुगु, मराठी, या मालवी बोलने वाले लोग कम सक्षम हैं? यह सोच हमारी सांस्कृतिक पहचान पर प्रहार है।
अंग्रेजी से परहेज नहीं, मानसिकता से आपत्ति
अंग्रेजी सीखने या बोलने में कोई बुराई नहीं है। यह एक वैश्विक भाषा है, और इसे जानना फायदेमंद है। लेकिन इसे कार्यक्षमता का एकमात्र पैमाना मानना गलत है। एक व्यक्ति जो हिंदी, तमिल, उड़िया, या स्थानीय बोली में पारंगत है, वह अपने कर्तव्यों को उतनी ही कुशलता से निभा सकता है। भाषा संवाद का माध्यम है, न कि बुद्धिमत्ता या क्षमता का मापदंड।
नैनीताल हाईकोर्ट का यह मामला एक उदाहरण है कि कैसे हमारी मानसिकता औपनिवेशिक सोच से मुक्त नहीं हुई है। यह केवल एक अधिकारी की कार्यक्षमता का सवाल नहीं, बल्कि पूरे देश की सांस्कृतिक पहचान और आत्मसम्मान का मुद्दा है।
निष्कर्ष
विवेक राय का हिंदी में जवाब देना कोई अपराध नहीं था। उनकी कार्यक्षमता को अंग्रेजी न बोल पाने के आधार पर आंकना न केवल गलत है, बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक गुलामी को दर्शाता है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में हस्तक्षेप कर सही कदम उठाया है। यह समय है कि हम भाषा को लेकर अपनी सोच बदलें और भारतीय भाषाओं को वह सम्मान दें, जिसकी वे हकदार हैं। अंग्रेजी से परहेज नहीं, लेकिन इसे कार्यक्षमता का पैमाना बनाने की मानसिकता से आपत्ति जरूर है।