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BRICS करेंसी: क्या अमेरिकी डॉलर को मिलेगी बड़ी चुनौती

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Last updated: July 17, 2025 3:22 pm
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ब्रिक्स का उदय और अमेरिका की बेचैनी

ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका) ने अपनी स्थापना के बाद से वैश्विक आर्थिक व्यवस्था में एक नई ताकत के रूप में उभरकर अमेरिका के लिए चुनौती पेश की है। साल 2022 में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के एक ऐलान ने अमेरिका में खलबली मचा दी थी, जिसमें उन्होंने एक नई वैश्विक रिजर्व करेंसी की बात कही थी। इस घोषणा ने यह स्पष्ट कर दिया कि ब्रिक्स देश अमेरिकी डॉलर की वैश्विक वर्चस्व को चुनौती देने की दिशा में काम कर रहे हैं। अमेरिका और यूरोपीय देशों द्वारा रूस पर लगाए गए प्रतिबंधों और विकासशील देशों पर व्यापारिक दबाव ने ब्रिक्स देशों को अपनी आर्थिक स्वायत्तता की तलाश में तेजी लाने के लिए प्रेरित किया है। इस बीच, रूस में ब्रिक्स के प्रतीकात्मक बैंक नोट छपने की खबर ने अमेरिका की चिंता को और बढ़ा दिया है।

Contents
ब्रिक्स का उदय और अमेरिका की बेचैनीरूस में ब्रिक्स बैंक नोट: प्रतीकात्मक कदम या भविष्य की नींव?अमेरिका की धमकी और टैरिफ का दबावब्रिक्स करेंसी की जरूरत: डॉलर की तानाशाही से मुक्तिब्रिक्स की रणनीति: नई वित्तीय व्यवस्था की ओरचुनौतियां: एक साझा करेंसी का सपनावैश्विक प्रभाव और भविष्य

रूस में ब्रिक्स बैंक नोट: प्रतीकात्मक कदम या भविष्य की नींव?

रूसी चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री के अध्यक्ष सर्गेई कातरीन ने बताया कि ब्रिक्स के प्रतीकात्मक बैंक नोट की 10,000 प्रतियां छापी गई हैं। ये नोट ब्रिक्स देशों की बहुध्रुवीय एकता और रणनीतिक साझेदारी को दर्शाने के लिए डिजाइन किए गए हैं। इन नोटों में संस्थापक देशों के झंडे, उनकी भाषा में लिखे गए नाम, और राष्ट्रीय प्रतीक जैसे भारत का मोर और हिंदी में लिखा “भारत” शामिल हैं। 2024 में पहली बार 100 और 200 मूल्यवर्ग के ये नोट सामने आए थे, और 2025 में सेंट पीटर्सबर्ग अंतरराष्ट्रीय आर्थिक मंच में इन्हें प्रदर्शित किया गया। यह कदम भले ही प्रतीकात्मक हो, लेकिन यह ब्रिक्स की महत्वाकांक्षा को दर्शाता है कि वे एक ऐसी वैश्विक वित्तीय व्यवस्था की नींव रखना चाहते हैं जो अमेरिकी डॉलर पर निर्भर न हो।

अमेरिका की धमकी और टैरिफ का दबाव

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने बार-बार ब्रिक्स देशों को चेतावनी दी है कि अगर वे डॉलर को चुनौती देने वाली कोई नई करेंसी लाएंगे, तो उन पर 100% टैरिफ लगाए जाएंगे। ट्रंप ने नाटो महासचिव मार्क रूटे के साथ बातचीत में रूस पर 50 दिनों के भीतर युद्ध खत्म करने का दबाव डाला और कहा कि अगर रूस ऐसा नहीं करता, तो वह कठोर कदम उठाएंगे, जिसमें रूस के साथ व्यापार करने वाले देशों पर सेकेंडरी सेंक्शंस भी शामिल हैं। इसमें भारत और चीन जैसे देश प्रमुख रूप से निशाने पर हैं, जो रूस के साथ व्यापारिक संबंध बनाए हुए हैं। ट्रंप का यह रुख दर्शाता है कि अमेरिका ब्रिक्स की बढ़ती ताकत और डी-डॉलराइजेशन की कोशिशों से घबराया हुआ है।

ब्रिक्स करेंसी की जरूरत: डॉलर की तानाशाही से मुक्ति

ब्रिक्स देशों की अपनी करेंसी की मांग के पीछे कई कारण हैं। सबसे बड़ा कारण है अमेरिकी डॉलर की राजनीतिक ताकत को संतुलित करना। अमेरिका ने डॉलर को एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया है, जैसे रूस, ईरान और वेनेजुएला पर प्रतिबंध लगाकर और उन्हें स्विफ्ट सिस्टम से बाहर करके। इन प्रतिबंधों ने इन देशों के डॉलर आधारित व्यापार को बुरी तरह प्रभावित किया। ब्रिक्स देश इस जोखिम से बचना चाहते हैं और स्थानीय मुद्राओं में व्यापार को बढ़ावा देना चाहते हैं। इससे न केवल एक्सचेंज रेट का जोखिम कम होगा, बल्कि आयात सस्ता होगा और मुद्रास्फीति पर भी नियंत्रण रहेगा। इसके अलावा, ब्रिक्स एक ऐसी वैश्विक वित्तीय व्यवस्था चाहता है जो पश्चिमी नियंत्रण वाले आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक से स्वतंत्र हो।

ब्रिक्स की रणनीति: नई वित्तीय व्यवस्था की ओर

ब्रिक्स देश एक वैकल्पिक भुगतान प्रणाली पर काम कर रहे हैं, जैसे कि ब्रिक्स क्रॉस-बॉर्डर पेमेंट इनिशिएटिव (BCBPI), जो राष्ट्रीय मुद्राओं का उपयोग करेगा। रूस ने एक ब्लॉकचेन-आधारित भुगतान प्रणाली का प्रस्ताव भी रखा है, जो स्विफ्ट का विकल्प हो सकती है। इसके साथ ही, चीन ने अपनी क्रॉस-बॉर्डर इंटरबैंक पेमेंट सिस्टम (CIPS) को बढ़ावा दिया है, और भारत जैसे देश स्थानीय मुद्राओं में व्यापार को प्रोत्साहित कर रहे हैं। ब्रिक्स देशों का लक्ष्य है कि वे एक ऐसी प्रणाली बनाएं जो न केवल उनके बीच व्यापार को सुगम बनाए, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी अन्य देशों को आकर्षित करे।

चुनौतियां: एक साझा करेंसी का सपना

हालांकि ब्रिक्स करेंसी का विचार आकर्षक है, लेकिन इसके सामने कई आर्थिक, राजनीतिक और तकनीकी चुनौतियां हैं। ब्रिक्स देशों की अर्थव्यवस्थाएं बहुत विविध हैं—ब्राजील कृषि और खनिज आधारित, रूस ऊर्जा पर निर्भर, भारत सेवा और उद्योग आधारित, चीन निर्यात-केंद्रित, और दक्षिण अफ्रीका मिश्रित अर्थव्यवस्था वाला देश है। इन देशों की मुद्राओं की स्थिरता और नीतियों में समन्वय की कमी एक साझा करेंसी को लागू करना मुश्किल बनाती है। इसके अलावा, चीन और भारत जैसे देशों के बीच भू-राजनीतिक तनाव भी एक बड़ी बाधा हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि एक साझा करेंसी बनाना मध्यम से दीर्घकालिक महत्वाकांक्षा है, और तत्काल इसका लागू होना मुश्किल है।

वैश्विक प्रभाव और भविष्य

ब्रिक्स देशों का बढ़ता प्रभाव, जो 45% वैश्विक आबादी और 35% वैश्विक जीडीपी (PPP) का प्रतिनिधित्व करता है, वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक बहुध्रुवीय व्यवस्था की ओर इशारा करता है। यदि ब्रिक्स अपनी वैकल्पिक करेंसी या भुगतान प्रणाली को सफलतापूर्वक लागू करता है, तो यह अमेरिकी डॉलर की वर्चस्व को कमजोर कर सकता है, जिससे अमेरिकी प्रतिबंधों का प्रभाव कम होगा। हालांकि, विशेषज्ञों का कहना है कि डॉलर की वैश्विक स्थिति अभी भी मजबूत है, क्योंकि यह 80% से अधिक वैश्विक व्यापार में उपयोग होता है। फिर भी, ब्रिक्स की कोशिशें अमेरिका को अपनी नीतियों पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर कर सकती हैं।

ब्रिक्स देशों की डी-डॉलराइजेशन की कोशिश और प्रतीकात्मक बैंक नोट छापने का कदम एक स्पष्ट संदेश है कि वे अमेरिकी वित्तीय वर्चस्व को चुनौती देने के लिए प्रतिबद्ध हैं। हालांकि, एक साझा करेंसी लागू करना एक जटिल और लंबी प्रक्रिया है। ट्रंप की टैरिफ धमकियां और प्रतिबंधों का दबाव ब्रिक्स देशों को और एकजुट कर सकता है, लेकिन यह वैश्विक व्यापार में तनाव को भी बढ़ा सकता है। भविष्य में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या ब्रिक्स अपनी महत्वाकांक्षाओं को हकीकत में बदल पाता है या अमेरिका की धमकियां इसे रोक पाएंगी।

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